
दंतेवाड़ा ऑर्गेनिक सर्टिफिकेट
-चन्नू कुंजम ने 13 साल पहले जब पहली बार खेती शुरू की थी, तब उनके पिता ने एक काम की सलाह दी थी। उनके पिता ने कहा था, “केमिकल हमारी जमीन बर्बाद कर देंगे।” छत्तीसगढ़ स्थित दंतेवाड़ा जिले के आलनार गांव में रहने वाले कुंजम बताते हैं कि उनका परिवार हमेशा से जैविक खेती करता रहा है जिसमें सूखे पत्तों और गाय के गोबर का इस्तेमाल किया जाता है। 2.54 हेक्टेयर खेत के मालिक कुंजम ने एक दशक पहले जीवामृत तैयार करना शुरू किया। इस जैविक उर्वरक को बनाने के लिए सारी सामग्री घर और खेतों से मिल जाती है। कुंजम कहते हैं, “जीवामृत बनाने के लिए हमें गाय के गोबर और गोमूत्र, गुड़, बेसन और मिट्टी की जरूरत होती है। इससे तैयार मिश्रण को 7 दिन तक रखने के बाद खेत में डाला जाता है।”
दंतेवाड़ा जिले के ही मसूदी गांव में रहने वाली किसान रीता मोडियम कहती हैं कि जीवामृत के इस्तेमाल से उनके खेत की उत्पादकता में सुधार हुआ है। रीता कहती हैं, “एक दशक पहले खेती से सिर्फ किसी तरह से गुजर-बसर ही हो पाता था। लेकिन, आज न सिर्फ अपने परिवार का पेट भरने के लिए पर्याप्त फसल उगा रही हूं, बल्कि कम से कम 20 क्विंटल धान और कई तरह की सब्जियां भी बेचती हूं।”
कुंजम और रीता दंतेवाड़ा के 110 गांवों के उन 10,000 किसानों में से एक हैं, जिन्हें 2023-24 में लार्ज एरिया सर्टिफिकेशन (एलएसी) योजना के तहत ऑर्गेनिक सर्टिफिकेट मिला है। 2020-21 में शुरू की गई एलएसी स्कीम केंद्र सरकार की पहल है, जिसके तहत द्वीपों, पहाड़ियों और रेगिस्तानों जैसे बड़े इलाकों को सर्टिफिकेट दिया जाता है, जहां पारंपरिक तौर पर जैविक खेती का चलन रहा है। यह स्कीम जैविक उत्पादों को प्रमाणित करने के लिए 2011 में शुरू की गई भारतीय भागीदारी गारंटी प्रणाली का हिस्सा है। अब तक, सिर्फ लद्दाख (5,000 हेक्टेयर) और लक्षद्वीप (2,700 हेक्टेयर) को ही एलएसी सर्टिफिकेट मिल सका है। वहीं, 110 गांवों की 65,000 हेक्टेयर कृषि भूमि वाला छत्तीसगढ़ एलएसी के तहत सर्टिफिकेट हासिल करने वाला पहला राज्य बन गया है।
संगठित प्रयास दंतेवाड़ा में जैविक क्रांति की शुरुआत 2013 में हुई, जब जिला प्रशासन ने जैविक खेती का विस्तार करने के लिए कृषि विभाग के साथ कदम उठाए। दंतेवाड़ा में जैविक किसानों के एक समूह भूमगाड़ी ऑर्गेनिक फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के आकाश बड़वे कहते हैं, “तब तक बिना एलएसी सर्टिफिकेट के ही किसान अपने स्तर पर खेतों में जैविक फसलें पैदा कर रहे थे।”
दंतेवाड़ा जिले के कृषि उप निदेशक सूरज कुमार पंसारी कहते हैं, “कृषि विभाग ने किसानों को वैज्ञानिक जानकारियां मुहैया कराईं, ताकि वे खेती से जुड़े अपने पारंपरिक तौर-तरीकों को बेहतर बना सकें।” उदाहरण के तौर पर किसानों को जैविक खेती के साथ-साथ धान उत्पादन बढ़ाने के लिए “सघन धान प्रणाली” का प्रशिक्षण भी दिया, जिसे श्री पद्धति और धान उत्पादन की मेडागास्कर विधि के नाम से भी जाना जाता है। श्री पद्धति के तहत धान के स्वस्थ पौधे एक-दूसरे के करीब रोपे जाते हैं, ताकि उनकी जड़ें मजबूत रहें। इस पद्धति से धान की खेती में पानी कम लगता है, पैदावार बढ़ती है और मिट्टी की गुणवत्ता सुधरती है।
प्रशासन ने मोचो बाड़ी (स्थानीय हलबी बोली में “मेरा खेत”) योजना भी शुरू की। यह योजना भारत के सबसे बड़े लौह अयस्क उत्पादक “राष्ट्रीय खनिज विकास निगम” (एनएमडीसी) के सहयोग से चलाई जा रही है। योजना के तहत किसानों को बाड़ लगाने, सौर पंप और कृषि उपकरणों पर सब्सिडी प्रदान दी जा रही है, ताकि किसान एक की बजाय दो मौसमों में फसल उगा सकें। एनएमडीसी की 2018 की सस्टेनिबिलिटी रिपोर्ट का दावा है कि मोचो बाड़ी स्कीम से खेतों में पैदावार बढ़ी और किसानों की आय में 600 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
2015 में एक बड़ा बदलाव तब आया, जब किसानों ने सरकारी दुकानों में रासायनिक खाद की बिक्री बंद करने की मांग की। तब राज्य के कृषि मंत्रालय की ओर से दंतेवाड़ा को ऑर्गेनिक जिला बनाने के लिए रोडमैप जारी किया गया। 2016 में जिला प्रशासन ने केमिकल्स का प्रचार बंद कर दिया। 2018 में किसानों ने निजी दुकानों में भी रासायनिक खाद की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। इसके बाद जिला प्रशासन ने निजी दुकानों के लाइसेंस का नवीनीकरण बंद कर दिया।
फिर शुरुआत हुई एलएसी के तहत सर्टिफिकेट हासिल करने की। इसके लिए गैर-लाभकारी संस्था निर्माण फाउंडेशन आगे आया, जिसकी मदद से गांवों ने एलएसी सर्टिफिकेट के लिए आवेदन किया। एलएसी के तहत एक गांव के सभी किसानों को एक समूह माना जाता है। गैर-लाभकारी संस्था ने इस प्रक्रिया को पूरा करने में ग्राम पंचायतों की मदद भी की। संस्था की मदद से ग्राम पंचायतों ने जैविक खेती वाले क्षेत्रों की पहचान की। साथ ही जिन खेतों में जैविक खेती हो रही थी, संस्था की मदद से ही उनका नक्शा भी तैयार किया जा सका, जिसमें उन खेतों की लोकेशन का विस्तृत विवरण दिया गया था।
ग्राम पंचायतों ने सभी किसानों से एक शपथ भी दिलवाई कि वे जैविक कृषि के मानकों का पूरी तरह से पालन कर रहे हैं और पिछले 3 वर्षों में उन्होंने किसी तरह की सिंथेटिक या केमिकल वाली चीजों का इस्तेमाल इन खेतों में नहीं किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने जिला प्रशासन से यह भी सत्यापित करवाया कि रासायनिक खाद और कीटनाशकों की बिक्री के लिए इन गांवों में कोई लाइसेंस जारी नहीं किया गया है। 2022 के अंत तक, गांवों ने अपने आवेदन पत्र क्षेत्रीय परिषद को सौंप दिए। जैविक खेती वाले क्षेत्रों को सत्यापित करने की जिम्मेदारी क्षेत्रीय परिषद पर ही होती है। क्षेत्रीय परिषद ने इन गांवों का दौरा किया, किसानों का साक्षात्कार लिया और खेतों से रैंडम तरीके से सैंपल लेकर कीटनाशकों के अवशेषों की जांच की।
इसके बाद केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त की गई एक समिति ने सभी दस्तावेजों का सत्यापन किया। आखिर में पीजीएस-इंडिया की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति ने पूरे क्षेत्र को जैविक घोषित कर दिया। पीजीएस-इंडिया से जुड़े निर्णय लेने का उत्तरदायित्व इसी समिति पर है। बड़वे कहते हैं, “यह प्रमाणन प्रक्रिया हर साल की जाती है। पहला प्रमाण पत्र 2023 में और दूसरा 2024 में मिला।”
आगे की राह दंतेवाड़ा के लिए एलएसी सर्टिफिकेट हासिल करना अभी बस एक शुरुआत है। अब अगला लक्ष्य जिले के बाकी 117 गांवों को भी प्रमाणीकरण प्रक्रिया में शामिल करना है, ताकि पूरा दंतेवाड़ा ऑर्गेनिक जिला बन सके। बड़वे कहते हैं, “जैविक खेती अपनाने के बाद जिस समय फसल बढ़ रही होती है, तब किसानों को उस पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत पड़ती है। इसीलिए खेती के साथ नौकरी करने वाले किसान अभी जैविक खेती नहीं अपना रहे हैं।” हालांकि, नजरिये में बदलाव आ रहा है। फसलों की बढ़ोतरी वाले चरण में किसानों को अधिक ध्यान देने की आवश्यकता होती है, इसलिए नौकरी करने वाले लोग अभी भी इसे नहीं अपना रहे हैं। कुपेर गांव में रहने वाले चरण सिंह यादव बताते हैं कि उनके गांव को अभी तक एलएसी के तहत शामिल नहीं किया गया है, लेकिन यहां रासायनिक उत्पादों का इस्तेमाल करने वाले किसानों की संख्या घटकर शून्य से 10 के बीच रह गई है।
जिला प्रशासन ने 2025 के लिए 3 प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किए हैं। प्रशासन का पहला उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी किसान रासायनिक खेती की तरफ न लौटे। दूसरा, स्थानीय खपत की जरूरतों को पूरा करने के लिए जैविक उत्पादन को बढ़ाने की योजना है। इसके लिए स्कूलों के मिड-डे मील यानी मध्याह्न भोजन, एकीकृत बाल विकास योजना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भी जैविक उत्पादों को शामिल किया जाएगा। दंतेवाड़ा के कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट मयंक चतुर्वेदी कहते हैं, “फिलहाल, जैविक उत्पादन से जिले की केवल 40 प्रतिशत मांग ही पूरी हो पा रही है।”
तीसरा लक्ष्य फसलों की विविधता बढ़ाना है, ताकि पोषण सुरक्षा बेहतर हो सके। इसके लिए सब्जियां, फल, दालें और मोटे अनाज की खेती भी शुरू की जाएगी। 2018 में केंद्र सरकार ने आकांक्षी जिला कार्यक्रम (एडीपी) शुरू किया था, जिसका उद्देश्य 112 पिछड़े जिलों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है। दंतेवाड़ा भी इन 112 जिलों में से एक है। अगर ये योजनाएं सफल रहीं, तो दंतेवाड़ा का कायापलट हो सकता है, लेकिन इसके लिए अभी बहुत काम किए जाने बाकी हैं।
उदाहरण के तौर पर, फसल सघनता का मतलब है किसी किसान द्वारा एक कृषि वर्ष में उसी खेत पर उगाई जाने वाली फसलों की संख्या। दंतेवाड़ा में फसल सघनता 101 प्रतिशत है, जो कृषि और किसान कल्याण विभाग की 2023-24 की वार्षिक रिपोर्ट के राष्ट्रीय औसत 155.4 प्रतिशत से काफी कम है। एलएसी कार्यक्रम में 3 साल के लिए 2,000 रुपए प्रति हेक्टेयर का प्रमाणन शुल्क शामिल है। राज्य सरकार की तरफ से जिला प्रशासन को दिए जाने वाले इस फंड का इस्तेमाल किसानों को सर्टिफिकेट दिलाने, उनकी क्षमता बढ़ाने और उनके उत्पादों को बाजार में बेचने के लिए मदद करने में किया जाता है।
विशेषज्ञ इस बात को लेकर आशंकित हैं कि प्रमाणन, क्षमता निर्माण और उत्पादों की बिक्री से जुड़े ये खर्च भविष्य में कौन उठाएगा। बड़वे कहते हैं, “हमें किसानों को प्रशिक्षित करने के लिए लगातार फंडिंग की जरूरत है।” जैविक खेती करने वाले किसान इस बात से भी निराश हैं कि स्थानीय बाजार में जैविक और रासायनिक उत्पादों की कीमतें एक जैसी हैं। जैविक फसलों के लिए प्रीमियम कीमतें तय की जाती हैं, तो जैविक खेती में दिलचस्पी रखने वाले किसान इससे प्रोत्साहित हो सकते हैं। 2022 में देश भर में हुए एक सर्वेक्षण हुआ, जिसकी रिपोर्ट सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित हुई। इस अध्ययन में पाया गया कि प्रीमियम कीमतें न तय होने से जैविक कृषि को बड़े पैमाने पर बढ़ाने में बाधा आ रही है।
फिलहाल, जैविक खेती करने वाले किसान स्थानीय बाजार में अलग जगह पर बैठते हैं, जिससे ग्राहक उन्हें आसानी से पहचान सकते हैं। कुंजम कहते हैं, “बाजार में यह व्यवस्था मददगार साबित हो रही है, इससे हमारी सब्जियां जल्दी बिक जाती हैं।” इसके साथ ही कुंजम यह भी कहते हैं कि अगर जैविक उत्पादों की कीमत ज्यादा मिलती है, इससे जिले में जैविक खेती को और बढ़ावा मिलेगा।