
जाति आधारित मंदिर ट्रस्टी नियुक्ति:
चेन्नई – मद्रास हाई कोर्ट ने चेन्नई के सैदापेट स्थित अरुलमिगु करनीश्वर मंदिर के ट्रस्टी पदों को केवल एक विशेष जाति तक सीमित करने की याचिका को खारिज कर दिया है। यह निर्णय न्यायमूर्ति डी. भारत चक्रवर्ती की अध्यक्षता में आया, जिन्होंने अपने फैसले में डॉ. बी.आर. अंबेडकर के विचारों का उल्लेख करते हुए कहा कि “जातियां राष्ट्रीय एकता के लिए बाधक हैं क्योंकि वे ईर्ष्या और वैमनस्य को जन्म देती हैं।” अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि धार्मिक संस्थानों के संचालन में जाति का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह आदेश 29 अप्रैल 2025 को (W.P.No.15257 of 2025) पारित किया गया, जिसे सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
याचिकाकर्ता के.वी. वेणुगोपाल, जो करानी ग्राम सेंगुंधर संगम के सचिव हैं, ने हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ न्यास (HR&CE) विभाग के संयुक्त आयुक्त द्वारा 3 अप्रैल 2025 को जारी उस अधिसूचना को चुनौती दी थी, जिसमें मंदिर के गैर-वंशानुगत ट्रस्टी पदों के लिए सभी नागरिकों से आवेदन आमंत्रित किए गए थे। वेणुगोपाल ने तर्क दिया कि केवल सैदापेट क्षेत्र में स्थायी रूप से निवास करने वाले सेंगुंधर समुदाय के लोगों को ही ट्रस्टी बनने का अधिकार मिलना चाहिए। उन्होंने 1924 की योजना डिक्री का हवाला देते हुए मांग की थी कि ट्रस्टी का चयन केवल उन्हीं जातीय सदस्यों द्वारा किया जाए, न कि सरकार द्वारा नियुक्त प्रतिनिधियों के माध्यम से।
कोर्ट ने इस तर्क को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि मंदिर प्रशासन में जाति आधारित कोई भी सीमांकन संविधान के खिलाफ है। न्यायमूर्ति चक्रवर्ती ने स्वामी विवेकानंद के उस उद्धरण का भी उल्लेख किया जिसमें कहा गया था, “आत्मा का कोई लिंग, कोई जाति, और कोई अपूर्णता नहीं होती।” उन्होंने आगे कहा कि ईश्वर के समक्ष सभी मनुष्य समान हैं और इसलिए मंदिर प्रशासन में भी समानता की भावना होनी चाहिए।
अदालत ने 2008 के सुप्रीम कोर्ट केस “अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ” का हवाला देते हुए कहा कि भारत का संविधान जातिहीन समाज की कल्पना करता है। इस फैसले में कोर्ट ने डॉ. अंबेडकर के संविधान सभा में दिए गए ऐतिहासिक भाषण को उद्धृत किया:
“भारत में जातियां हैं। जातियां राष्ट्र विरोधी हैं। वे सामाजिक जीवन को विभाजित करती हैं, जातियों के बीच ईर्ष्या और द्वेष उत्पन्न करती हैं। यदि हम एक सच्चा राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो हमें इन बाधाओं को समाप्त करना होगा। बंधुत्व तभी संभव है जब एक राष्ट्र हो, और उसके बिना समानता और स्वतंत्रता खोखले मूल्य बन जाते हैं।”
कोर्ट ने कहा कि जाति के आधार पर याचिकाओं की स्वीकृति संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत न्यायिक अधिकारों का दुरुपयोग होगा, जो संविधान की भावना के खिलाफ है।
इसके साथ ही, अदालत ने अपने पिछले निर्णय (W.P.No.3838 of 2025) का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि कोई भी जाति मंदिर के प्रशासन पर विशेष अधिकार नहीं जता सकती क्योंकि जाति किसी धार्मिक संप्रदाय की परिभाषा में नहीं आती। अदालत ने दोहराया कि जाति एक सामाजिक बुराई है और इसे समाप्त करना भारत के संवैधानिक मूल्यों—समानता और बंधुत्व—की पूर्ति के लिए आवश्यक है।
1924 की योजना डिक्री, जिसे बाद में HR&CE आयुक्त द्वारा संशोधित किया गया था, को भी अदालत ने असंवैधानिक करार दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि 3 अप्रैल 2025 की अधिसूचना, जिसमें मंदिर ट्रस्टी पदों के लिए सभी योग्य नागरिकों को आवेदन का अवसर दिया गया है, समानता और भेदभाव से मुक्त समाज की अवधारणा के अनुरूप है।
अंततः, अदालत ने याचिका को बिना किसी लागत के खारिज करते हुए संबंधित सभी विविध याचिकाओं को बंद कर दिया।
Source – The Mooknayak( जाति आधारित मंदिर ट्रस्टी नियुक्ति )
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