
Justice Bela त्रिवेदी को क्यों नहीं मिली विदाई? सुप्रीम कोर्ट की परंपरा टूटी पहली बार
सुप्रीम कोर्ट में वर्षों से चली आ रही एक परंपरा है—जब कोई जज रिटायर होते हैं, तो उन्हें बार एसोसिएशन की ओर से सम्मानपूर्वक विदाई दी जाती है। लेकिन 16 मई 2025 को, जब जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी का आखिरी कार्यदिवस था, उस दिन यह परंपरा पहली बार टूटी। उन्हें बार की ओर से कोई विदाई नहीं दी गई, जिससे पूरे न्यायिक तंत्र में बहस शुरू हो गई।
न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और टूटी हुई परंपरा
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में यह पहली बार हुआ कि किसी सेवारत महिला न्यायाधीश को उनकी सेवानिवृत्ति पर वकीलों की ओर से फेयरवेल नहीं दिया गया। इससे न केवल एक प्रतिष्ठित परंपरा टूटी, बल्कि वकीलों और न्यायधीशों के बीच संबंधों में गहराई से दरार का संकेत भी मिला।
सुप्रीम कोर्ट की सेरेमोनियल बेंच की परंपरा तो निभाई गई, जिसमें चीफ जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह मौजूद थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) की ओर से कोई औपचारिक फेयरवेल आयोजित नहीं किया गया।
वकीलों की नाराजगी का कारण: व्यवहार और संवाद की कमी
सीनियर वकील रोहित पांडे, जो SCBA के सदस्य हैं, ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जस्टिस बेला के व्यवहार में संवाद की कमी और कठोरता दिखाई देती थी। उन्होंने कहा, “कोर्ट में वकील और जज के बीच सम्मान का रिश्ता होता है, लेकिन जस्टिस बेला ने कभी तालमेल की कोशिश नहीं की।”
वकीलों का कहना है कि वे सिर्फ न्यायिक फैसलों से नहीं, बल्कि उनके कड़े व्यवहार से भी असंतुष्ट थे। कोर्ट में छोटी-छोटी मानवीय गलतियों पर भी वे जुर्माना लगा देती थीं और कई बार वकीलों को फटकार लगाती थीं। यह रवैया वकीलों में आक्रोश का कारण बना।
कपिल सिब्बल को भी झेलनी पड़ी फटकार
एक प्रसिद्ध वाकया 2023 का है, जब सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कोर्ट में कहा, “Will you hear me, please?” इसके जवाब में जस्टिस बेला ने कड़े स्वर में कहा, “No, I will not hear you.” अदालत में मौजूद सभी लोग स्तब्ध रह गए। कपिल सिब्बल, जो SCBA के प्रेसिडेंट भी हैं, को इस तरह की प्रतिक्रिया से सभी अचंभित हुए।
बेल मामलों में सख्ती और एकतरफा रवैया
जस्टिस बेला का रुख बेल मामलों में बेहद सख्त माना गया। रिपोर्ट्स के अनुसार, उनके सामने आने वाले ज़्यादातर क्रिमिनल केसों में जमानत की अर्जी खारिज ही की गई। सुप्रीम कोर्ट में “जमानत नियम है, जेल अपवाद” का सिद्धांत चलता है, लेकिन उनके फैसले इस सिद्धांत से अक्सर अलग देखे गए।
प्रमुख मामले जिनमें बेल नहीं दी गई:
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उमर खालिद (दिल्ली दंगे, 14 महीनों में 12 बार याचिका दाखिल, सुनवाई नहीं हुई)
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गुलफिशा फातिमा और शरजील इमाम (जमानत खारिज)
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महेश राउत (भीमा कोरेगांव, हाईकोर्ट से मिली बेल को सस्पेंड कर दिया)
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सत्येंद्र जैन, के. कविता, वी. सेंथिल बालाजी (सभी की याचिकाएं खारिज)
इन मामलों से यह धारणा बनने लगी कि वे विपक्षी नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को राहत देने में अनिच्छुक थीं।
FIR को अंतिम सत्य मानने का आरोप
कई वकीलों ने यह भी आरोप लगाया कि जस्टिस बेला एफआईआर को ही अंतिम सत्य मान लेती थीं। वे याचिकाओं पर सुनवाई से पहले ही निष्कर्ष निकाल लेती थीं। एक एडवोकेट ‘धीरज’ (बदला हुआ नाम) ने दावा किया कि वे बेल और पैरोल के 99% मामलों को सीधे खारिज कर देती थीं, और पहले से ही मानसिक निर्णय लेकर बैठती थीं।
‘फेयरवेल न देना एक संदेश है’
पूर्व सचिव रोहित पांडे का कहना है कि जस्टिस बेला को फेयरवेल न देना कोई निजी प्रतिशोध नहीं बल्कि एक “संदेश” है कि बार अब चुप नहीं रहेगा। “यह स्पष्ट करता है कि बार सिर्फ दर्शक नहीं है, वह अपनी असहमति व्यक्त कर सकता है।”
वकीलों की चुप्पी और डर
जस्टिस बेला भले ही आखिरी कार्यदिवस पूरा कर चुकी हैं, लेकिन वे 9 जून तक पद पर बनी रहेंगी। इस कारण कई वकील अब भी खुलकर कुछ कहने से बच रहे हैं। वे नहीं चाहते कि उनका बयान कोर्ट के सामने नकारात्मक रूप में देखा जाए। कुछ वकील अनाम रहकर अपनी राय देने को तैयार हुए, जिसमें जस्टिस बेला को “बेल न देने वाली जज” बताया गया।
कपिल सिब्बल की मौजूदगी पर सवाल
हालांकि जस्टिस बेला की विदाई समारोह नहीं हुआ, लेकिन सेरेमोनियल बेंच में कपिल सिब्बल और रचना श्रीवास्तव जैसे SCBA पदाधिकारी उपस्थित थे। इससे बार के अंदर भी मतभेद सामने आए। एक ओर संस्था विदाई नहीं देती, दूसरी ओर अध्यक्ष मंच पर प्रशंसा करते दिखते हैं — यह विरोधाभास भी विवाद का हिस्सा बन गया।
निष्कर्ष: परंपराओं का सम्मान और बदलाव की मांग
जस्टिस बेला त्रिवेदी की सेवानिवृत्ति एक ऐसे समय पर हुई जब सुप्रीम कोर्ट में पारदर्शिता, सहयोग और संवाद की पहले से अधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है। फेयरवेल न दिया जाना एक अप्रत्याशित कदम था, जिसने न केवल न्यायिक समुदाय को चौंकाया बल्कि न्यायपालिका की साख पर भी सवाल खड़े किए।
वकीलों की नाराजगी, जमानत मामलों में सख्ती, और संवादहीनता जैसे मुद्दे स्पष्ट करते हैं कि अब बार और बेंच के बीच पारदर्शी संवाद और आपसी सम्मान की परंपरा को फिर से मजबूती से स्थापित करने की आवश्यकता है।
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