
Caste Census- जातिगत जनगणना और बाज़ार: सामाजिक समानता के रास्ते में खड़ा भ्रम
भारतीय राजनीति में भाजपा के लगातार वर्चस्व ने जहां कई राजनीतिक समीकरणों को बदला है, वहीं एक अप्रत्याशित असर यह भी देखने को मिला है कि इसने विपक्ष के विचारकों में मौजूद मतभेदों को भी कम कर दिया है। दो दशक पहले की तुलना में आज जाति आधारित जनगणना की हालिया घोषणा का विरोध करने वाले आलोचक काफी कम बचे हैं। वे प्रत्यक्ष विरोध के बजाय अब तकनीकी पहलुओं पर बहस करने लगे हैं। दूसरी ओर, भाजपा समर्थक बुद्धिजीवी पहले से ही पार्टी की नीति के साथ खड़े हैं।
इस पृष्ठभूमि में वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता का अपनी राय पर अडिग रहना उल्लेखनीय है। उनका मानना है कि जातिगत जनगणना का रास्ता अंततः जाति आधारित कल्याणकारी नीतियों और निजी क्षेत्र में आरक्षण की ओर ले जाएगा। उनका दृष्टिकोण एक ऐसे उदारवादी दृष्टिकोण का प्रतीक है जो हस्तक्षेप से बचता है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता देता है। हालांकि यह विचार वैचारिक दृष्टि से विवादास्पद हो सकता है, लेकिन गुप्ता पहले भी मुक्त बाजार व्यवस्था के पक्ष में इसी प्रकार के तर्क रख चुके हैं।
अर्जेंटीना के राष्ट्रपति जेवियर मिलेई के विचारों की मदद से इस परिप्रेक्ष्य को समझना उपयोगी हो सकता है। वे जातीयता आधारित पहचानों को सत्ता संरचना की पहचान मानते हैं और कहते हैं कि “जातीय अधिकारों के नाम पर नीति बनाना एक अच्छी मंशा के पीछे छिपे खतरे जैसा है।” भारत में, हालांकि, जाति कोई काल्पनिक अवधारणा नहीं बल्कि एक सामाजिक यथार्थ है। यहां जाति न केवल सामाजिक व्यवहार में बल्कि आर्थिक संबंधों में भी गहराई से जुड़ी हुई है।
बाज़ार की भूमिका: जाति को मिटाना या नया स्वरूप देना?
हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि भारत के निचले जातीय समूह — जैसे दलित और पिछड़े वर्ग — अभी भी पारंपरिक जातिगत व्यवसायों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। उत्तर प्रदेश के सेवा क्षेत्र में उच्च जातियों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौजूदगी इस प्रवृत्ति को दर्शाती है। यह किसी एक राज्य की समस्या नहीं है — यह भारत भर में व्याप्त है।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का यह तंज़ कि “अगर मोदीजी का परिवार सच में चाय बेचता था, तो कोई उसकी चाय नहीं पीता,” जाति की जटिलताओं को ही उजागर करता है। केरल से सांसद के. राधाकृष्णन ने भी इसी प्रकार एक दलित उद्यमी के बहिष्कार की घटना का ज़िक्र किया था।
प्रोफेसर असीम प्रकाश की रिसर्च बताती है कि जाति और पूंजी के बीच का रिश्ता ‘योग्यता’ के आदर्शों से नहीं, बल्कि सामाजिक संबंधों से संचालित होता है। इसी तरह, समाजशास्त्री बारबरा हैरिस-व्हाइट का कहना है कि व्यापारिक नेटवर्क में जाति निर्णायक भूमिका निभाती है। ऊंची जातियों को इन नेटवर्कों से विशेष लाभ मिलता है, जबकि दलित समुदाय उन्हीं पेशों में सिमटे रहते हैं जिन्हें पारंपरिक रूप से हेय समझा जाता है।
बाज़ार का समावेशन: बहिष्कार नहीं, बल्कि ‘प्रतिकूल समावेशन’
प्रकाश के अनुसार, दलितों को बाज़ार में भागीदारी तो मिलती है, पर समान शर्तों पर नहीं। इसे ‘विपरीत समावेशन’ कहा जा सकता है, जहां भागीदारी तो होती है, लेकिन शोषण के साथ। पश्चिमी समाजों में उदारवाद अक्सर ‘अहस्तक्षेप’ की बात करता है, पर भारत में दलितों के संदर्भ में यही रवैया हर दिन के सामाजिक आक्रमण को आमंत्रित करता है।
डेविड मोस्से जैसे नृविज्ञान विशेषज्ञ बताते हैं कि शहरी नौकरियों में जाति एक अदृश्य लेकिन प्रभावी भूमिका निभाती है। जातिगत पहचान व्यक्ति की नौकरी पाने की संभावना को उसके हुनर से ज्यादा प्रभावित करती है। ये परिस्थितियां कुछ ओबीसी समूहों पर भी लागू होती हैं, लेकिन आंकड़े इस विविधता को पूरी तरह समाहित नहीं कर पाते।
जाति और बाज़ार में हस्तक्षेप: एक तार्किक आवश्यकता
कोई भी विवेकपूर्ण पूंजीवादी यह जरूर मानेगा कि इस तरह की जातिगत वर्चस्व प्रणाली मानव संसाधन का कुशल उपयोग नहीं है। भारत जैसे देश में जहां सामाजिक संरचनाएं अभी भी परंपरागत हैं, वहां ‘न्यूनतम हस्तक्षेप’ का सिद्धांत उल्टा असर डाल सकता है। इसलिए राज्य को, ‘जहां ज़रूरत हो वहां हस्तक्षेप’ की नीति अपनानी चाहिए।
फिलॉसफर जॉन लॉक के अनुसार, वैध सरकार को कभी-कभी निजी संपत्ति को सार्वजनिक हित में प्रयोग करने की छूट होनी चाहिए — उचित मुआवज़े के साथ। यही सिद्धांत सामाजिक संसाधनों में बराबरी लाने के लिए लागू किया जा सकता है।
हमने पहले से ही आरक्षण जैसे कदम उठाए हैं। वे आदर्श नहीं हैं, परंतु कम से कम बुरे विकल्प हैं और प्रभावी भी हैं। निजी शिक्षा और ‘व्हाइट कॉलर’ नौकरियों में आरक्षण से इन समुदायों को आर्थिक मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है। यह सोचना क्रूरता होगी कि उन्हें केवल सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों या निजी क्षेत्र की सहानुभूति पर निर्भर रहना चाहिए।
आगे का रास्ता: आंकड़ों की रोशनी में बदलाव
70 साल का इंतजार यह साबित करता है कि बिना संरचित प्रयासों के कोई बदलाव संभव नहीं है। राज्य का हस्तक्षेप हो या निजी क्षेत्र का दृष्टिकोण बदले — इसके लिए ठोस डाटा की ज़रूरत है। जातिगत जनगणना ऐसा डाटा प्रदान कर सकती है, बशर्ते इसमें सभी जातियों और आर्थिक आंकड़ों को शामिल किया जाए।
जैसा कि क्रिस्टोफर हिचेन्स ने कहा था, “कोई भी गंभीर सत्ताधारी वर्ग अपने ही आंकड़ों के मामले में खुद से झूठ नहीं बोलेगा।” यदि जनगणना से यह सिद्ध हो जाए कि भारत में जातीय समानता पहले ही आ चुकी है, तो वह खुशी की बात होगी।
भारत के कुछ राज्यों में पहले भी जातिगत आंकड़े इकट्ठा किए जा चुके हैं और इससे कोई बड़ा संकट उत्पन्न नहीं हुआ। इसलिए पूर्वाग्रह के साथ प्रतिक्रिया देने के बजाय, हमें साहसिक सोच के साथ आगे बढ़ना चाहिए।
निष्कर्ष
चाहे जातिगत जनगणना हो या निजी क्षेत्र में आरक्षण, दोनों के पक्ष में एक उदारवादी, डेटा-आधारित तर्क मौजूद है। यदि यह ‘राष्ट्रीय हित’ में है — जैसा कि शेखर गुप्ता के कॉलम का नाम भी है — तो सिद्धांतों की रक्षा करने वाले उदारवादियों को इसका समर्थन ज़रूर करना चाहिए।
यह लेख ‘दिप्रिंट’ के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता के कॉलम ‘नेशनल इन्टरेस्ट’ में 3 मई 2025 को छपे लेख पर एक प्रतिक्रिया है.
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