Bastar Lisa Painful Story-
छत्तीसगढ़ के बस्तर की एक दर्दनाक कहानी सामने आई है। 6 साल की उम्र में जिस बच्ची को उसके पिता ने बचाने के लिए एक कमरे में बंद कर दिया था—वह अब 20 साल की युवती बन चुकी है।
लेकिन जब 14 साल बाद वह कमरे से बाहर निकली, तब तक उसकी दुनिया अंधकार में बदल चुकी थी।
यह सिर्फ एक खबर नहीं… एक खामोश त्रासदी है।
एक मिट्टी का कमरा, न रोशनी न हवा… यही था 20 साल तक लिसा का संसार
बस्तर के बकावंड गांव की इस बच्ची का जीवन एक अंधेरे कमरे तक सीमित हो गया था।
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दरवाजे के बाहर रखी थाली की खनक उसका संवाद था।
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कमरे की मिट्टी, अंधेरा और खामोशी उसके साथी थे।
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साल दर साल वह उसी अंधकार में जीती रही, वहीं खाती, नहाती, सोती…
और इसी अंधेरे ने धीरे-धीरे उसकी आंखों की रोशनी छीन ली।
जब सामाजिक न्याय विभाग की टीम उसे रेस्क्यू करने पहुंची, तो उन्होंने एक ऐसी लड़की देखी जो दुनिया को भूल चुकी थी… बोलने का आत्मविश्वास खो चुकी थी… और लोगों से बेहद डरती थी।
आखिर पिता ने क्यों कैद कर दिया था लिसा को?
यह कैद किसी सजा की नहीं, बल्कि डर की थी।
14 साल पहले गांव का एक बिगड़ा युवक उस छोटी बच्ची पर बुरी नजर रखता था।
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मां की पहले ही मौत हो चुकी थी
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पिता गरीब थे
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घर सुरक्षित नहीं था
पिता हर दिन इस डर में जीते थे कि कहीं उनकी बेटी किसी घटना का शिकार न हो जाए।
डर ने उन्हें वह कदम उठाने पर मजबूर कर दिया, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती—उन्होंने बेटी को कमरे में बंद कर दिया।
वे सोचते रहे कि वे उसे बचा रहे हैं, लेकिन बचाते-बचाते उसे अंधकार की उम्रकैद दे बैठे।
14 साल बाद जब दरवाजा खुला… दुनिया अंधेरी हो चुकी थी
रेस्क्यू टीम जब कमरे में पहुंची तो…
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वहां खिड़की नहीं थी
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रोशनी नहीं थी
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हवा तक की सही व्यवस्था नहीं थी
ईंट-मिट्टी की झोपड़ी के अंदर सिर्फ अंधेरा था।
14 साल तक एक ही कमरे में रहने से उसकी आंखों की रोशनी लगभग चली गई।
डॉक्टरों का कहना है—शायद वह वापस न आए।
“रेस्क्यू के वक्त वह लोगों से डर रही थी…” – सामाजिक कल्याण विभाग
उप निदेशक सुचित्रा लाकरा ने बताया—
“वह 6 साल की उम्र से लेकर अब 20 साल की हो गई। कमरे में अकेले सबकुछ करती थी। कोई खिड़की नहीं थी, पूरा अंधेरा। रेस्क्यू के समय वह लोगों से बहुत डर रही थी।”
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उसे तुरंत मेडिकल कॉलेज अस्पताल ले जाया गया
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शारीरिक और मानसिक जांच की गई
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अब उसे “घरौंदा आश्रम” में रखा गया है
वह अब धीरे-धीरे फिर से जीना सीख रही है—
खुद खाना, नहाना, बातचीत करना, और सबसे ज्यादा… लोगों पर भरोसा करना।
पिता ने कबूला—“मैं बुजुर्ग हो गया हूं, इसकी देखभाल नहीं कर पा रहा”
पिता ने स्वीकार किया कि बच्ची एक युवक से डरी हुई थी, इसलिए उन्होंने उसे कमरे में बंद रखा।
परिवार के अन्य सदस्य पास ही रहते थे, लेकिन उन्होंने देखभाल नहीं की।
क्या यह मानवाधिकार उल्लंघन का मामला है? जांच जारी
सामाजिक कल्याण विभाग तीन पहलुओं पर जांच कर रहा है—
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लंबी कैद की वजहें क्या थीं?
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क्या यह गंभीर उपेक्षा या आपराधिक लापरवाही है?
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क्या यह गैरकानूनी बंदी और मानवाधिकार उल्लंघन का मामला है?
प्रशासन ने कहा कि रिपोर्ट आते ही कार्रवाई की जाएगी।
अब लिसा फिर से जीना सीख रही है…
डॉक्टरों का कहना है कि आंखों की रोशनी शायद न लौटे, लेकिन
अगर समाज उसका हाथ थाम ले… तो उसका कल अंधेरा नहीं होगा।
यह कहानी सिर्फ दर्द की नहीं—
यह इंसानियत की उस जिम्मेदारी की याद दिलाती है, जिसे हम भूलते जा रहे हैं।
