
Reservation History -सिर्फ 30 शब्दों के एक संवैधानिक संशोधन ने बदल दी करोड़ों पिछड़ों की किस्मत – कैसे पेरियार ने आरक्षण खत्म करने की साजिश को नाकाम किया?
भारत में आरक्षण हमेशा से एक संवेदनशील और अहम मुद्दा रहा है। जहां एक तरफ देश की बड़ी आबादी इसके समर्थन में रही, वहीं एक वर्ग हमेशा इसके खिलाफ खड़ा रहा। ऐसे में यह जानना बेहद महत्वपूर्ण है कि किस तरह संविधान में सिर्फ 30 शब्दों का एक खंड जोड़कर करोड़ों पिछड़ों के अधिकार सुरक्षित किए गए।
यह घटना वर्ष 1950 की है जब एक ब्राह्मण महिला शेनबागुम दुरईसामी को चिकित्सा महाविद्यालय में प्रवेश नहीं मिला, क्योंकि वह आयु सीमा पार कर चुकी थीं। उन्होंने आरक्षण को दोषी ठहराया और मद्रास उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। 28 जुलाई को अदालत ने उनके पक्ष में निर्णय दिया और इस फैसले को उच्चतम न्यायालय ने भी बरकरार रखा। नतीजतन, आरक्षण की व्यवस्था समाप्त हो गई।
शेनबागुम के वकील संविधान सभा के पूर्व सदस्य अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर थे। मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले के महज एक हफ्ते बाद पेरियार ने 6 अगस्त 1950 को राज्य की जनता से अपने अधिकारों की पुनःस्थापना के लिए आंदोलन का आह्वान किया। यह आंदोलन जोर पकड़ता गया और 14 अगस्त को पेरियार द्वारा बुलाई गई आम हड़ताल ने सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया।
इसके बाद, भारत सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 15 में खंड (4) जोड़कर यह स्पष्ट किया कि राज्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान बना सकता है। यह संशोधन सिर्फ 30 शब्दों का था, लेकिन इसका असर करोड़ों नागरिकों की शिक्षा और सामाजिक प्रगति पर पड़ा।
अनुच्छेद 15 (1) कहता है कि ‘राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान या इसमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।‘
अनुच्छेद 29 (2) के अनुसार, ‘राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षण संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इसमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।‘
अनुच्छेद 15 में खंड (4) जोड़ा गया, जो कहता है कि ‘इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से नहीं रोकेगी।‘
इस प्रकार पेरियार ने आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने के षड्यंत्र को विफल करके इसके लिए संवैधानिक व्यवस्था करवा दी।
अगर यह संशोधन नहीं हुआ होता तो तमिलनाडु समेत कई राज्यों की पिछड़ी जातियों को उच्च शिक्षा और अवसरों से वंचित रहना पड़ता। पेरियार के नेतृत्व और संघर्ष ने यह सुनिश्चित किया कि सामाजिक न्याय की नींव मजबूत रहे।
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