
भारत में जनगणना: प्रक्रिया, इतिहास, कानूनी आधार और गोपनीयता
अवलोकन
भारत में जनगणना एक ऐसी राष्ट्रीय प्रक्रिया है, जो देश की जनसंख्या, उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, और जनसांख्यिकीय विशेषताओं से संबंधित विस्तृत जानकारी प्रदान करती है। यह केवल आंकड़ों का संग्रह मात्र नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा उपकरण है, जो नीति निर्माण, योजना निर्माण, संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण और विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
जनगणना की परिभाषा
जनगणना को परिभाषित किया जाए तो यह एक व्यवस्थित प्रक्रिया है, जिसमें किसी विशेष तिथि को किसी देश या उसके किसी विशिष्ट भू-भाग के सभी व्यक्तियों के बारे में जनसांख्यिकीय, आर्थिक और सामाजिक जानकारी एकत्रित, संकलित, विश्लेषित और प्रकाशित की जाती है। इसमें व्यक्ति की उम्र, लिंग, शिक्षा, व्यवसाय, आवासीय स्थिति, धर्म, भाषा, विवाह स्थिति आदि जैसे अनेक बिंदुओं पर जानकारी ली जाती है।
भारतीय जनगणना की विशेषता
भारत में होने वाली जनगणना को विश्व की सबसे विशाल जनगणना प्रक्रियाओं में गिना जाता है। यह एक विशाल प्रशासनिक और तकनीकी आयोजन होता है, जिसमें लाखों कर्मचारी और अधिकारी हिस्सा लेते हैं। यह प्रक्रिया हर 10 वर्षों में एक बार होती है और इसे “दशकीय जनगणना” के नाम से जाना जाता है।
जनगणना संचालन का दायित्व
भारत में जनगणना संचालन की जिम्मेदारी गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत महारजिस्ट्रार और जनगणना आयुक्त के कार्यालय की होती है। इस कार्यालय को जनगणना की योजना, निगरानी, प्रशिक्षण, डेटा संग्रह, विश्लेषण और प्रकाशन जैसे कार्यों की जिम्मेदारी सौंपी जाती है।
पहले की व्यवस्था
वर्ष 1951 तक प्रत्येक जनगणना के लिए एक तदर्थ आधार पर संगठन की स्थापना की जाती थी, जो केवल उस विशेष जनगणना की जिम्मेदारी संभालता था। लेकिन बाद में इसे एक स्थायी संस्था का रूप दिया गया ताकि इसमें निरंतरता और विशेषज्ञता विकसित की जा सके।
कानूनी और संवैधानिक आधार
भारत में जनगणना का कार्य जनगणना अधिनियम, 1948 के अंतर्गत किया जाता है। यह अधिनियम जनगणना प्रक्रिया की रूपरेखा, नियम, जिम्मेदारियां और दंड को स्पष्ट करता है। यह अधिनियम भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया था और इसे प्रस्तुत करने का श्रेय तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को जाता है।
संवैधानिक स्थिति
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत जनगणना को संघ सूची के अंतर्गत रखा गया है, जो कि केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। यह संविधान की सातवीं अनुसूची के क्रमांक 69 में उल्लिखित विषयों में शामिल है।
सूचना की गोपनीयता
जनगणना में एकत्रित की गई सभी जानकारी पूरी तरह गोपनीय होती है। इसे किसी भी न्यायालय, सरकारी संस्था या सार्वजनिक मंच पर उजागर नहीं किया जा सकता। जनगणना अधिनियम, 1948 में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि एकत्रित जानकारी का प्रयोग केवल सांख्यिकीय विश्लेषण और नीति निर्माण हेतु किया जाएगा।
दंडात्मक प्रावधान
यदि कोई व्यक्ति या अधिकारी जनगणना प्रक्रिया में बाधा डालता है, झूठी जानकारी देता है या गोपनीयता भंग करता है, तो उसके लिए कानून के तहत दंड का प्रावधान है। यह सख्त नियम जनगणना की विश्वसनीयता और जनता के भरोसे को बनाए रखने के लिए अनिवार्य हैं।
जनगणना का महत्त्व
जनगणना के आंकड़े केवल सरकारी नीतियों के निर्माण के लिए उपयोगी नहीं होते, बल्कि यह समाज के हर पहलू पर गहरा प्रभाव डालते हैं। भारत में जनगणना दुनिया में सबसे बड़े प्रशासनिक अभ्यासों में से एक मानी जाती है और इसका महत्त्व कई पहलुओं में व्याप्त है:
सूचना का स्रोत
भारत में जनगणना से मिलने वाली जानकारी देश के लोगों की विभिन्न विशेषताओं के बारे में सबसे बड़ा एकल सांख्यिकीय स्रोत है। इसके आंकड़ों का इस्तेमाल शोधकर्ता जनसंख्या के विकास, प्रवृत्तियों, और भविष्यवाणियों के लिए करते हैं। इसके अलावा, यह समाजशास्तिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अध्ययन के लिए भी महत्वपूर्ण होता है।
सुशासन
जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल सरकारी प्रशासन, योजना निर्माण, और नीति निर्धारण में किया जाता है। यह जानकारी न केवल सरकार को संसाधनों का सही तरीके से वितरण करने में मदद करती है, बल्कि विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों और योजनाओं के प्रभाव का मूल्यांकन करने में भी सहायक होती है।
सीमांकन और प्रतिनिधित्व
जनगणना के आँकड़ों का इस्तेमाल निर्वाचन क्षेत्रों के सीमांकन और संसद, राज्य विधानसभाओं, और स्थानीय निकायों के प्रतिनिधित्व हेतु आवंटन के लिए भी किया जाता है। यह सुनिश्चित करता है कि हर क्षेत्र की जनसंख्या के अनुसार उसे उचित प्रतिनिधित्व मिले।
व्यवसायों की बेहतर पहुँच
व्यावसायिक घराने और उद्योगों के लिए भी जनगणना के आँकड़े अत्यंत उपयोगी होते हैं। यह आँकड़े उन्हें उन क्षेत्रों में अपने व्यापार को विस्तारित करने की योजना बनाने में मदद करते हैं, जहाँ अब तक उनकी पहुँच नहीं थी।
अनुदान देना
जनगणना के आँकड़ों के आधार पर वित्त आयोग राज्यों को अनुदान प्रदान करता है। इसके माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि विकासशील राज्यों को उनकी जनसंख्या के आधार पर अधिक संसाधन मिलें।
जनगणना का इतिहास
प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास
भारत में जनगणना की शुरुआत बहुत पुरानी है, और इसके कुछ संकेत हमें प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं:
ऋग्वेद
प्रारंभिक साहित्य में ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है कि लगभग 800-600 ईसा पूर्व के दौरान भारत में जनसंख्या का एक प्रकार का गणना रिकॉर्ड रखा गया था। इस समय इसे एक प्रशासनिक प्रक्रिया के रूप में देखा गया था।
अर्थशास्त्र
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक कौटिल्य ने अपनी रचना अर्थशास्त्र में राज्य की नीति बनाने के लिए जनसंख्या के आँकड़ों के संग्रहण का महत्व बताया था।
आइन-ए-अकबरी
मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में आइन-ए-अकबरी नामक प्रशासनिक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसमें जनसंख्या, उद्योग, धन और अन्य विशेषताओं के आंकड़े शामिल थे।
स्वतंत्रता-पूर्व जनगणना
- प्रारंभिक प्रयास:
- जनगणना का इतिहास 1800 ई. से शुरू हुआ जब इंग्लैंड ने अपनी जनगणना शुरू की थी।
- इसकी निरंतरता में जेम्स प्रिंसेप द्वारा इलाहाबाद (वर्ष 1824) और बनारस (वर्ष 1827-28) में जनगणना करवाई गई।
- एक भारतीय शहर की पहली पूर्ण जनगणना वर्ष 1830 में हेनरी वाल्टर द्वारा ढाका (अब बांग्लादेश में) में आयोजित की गई थी।
- दूसरी जनगणना वर्ष 1836-37 में फोर्ट सेंट जॉर्ज द्वारा की गई थी।
- वर्ष 1849 में भारत सरकार ने स्थानीय सरकारों को जनसंख्या का पंचवर्षीय संचालन करने का आदेश दिया।
- पहली गैर-तुल्यकालिक जनगणना: यह भारत में वर्ष 1872 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड मेयो के शासन काल के दौरान आयोजित की गई थी।
- पहली तुल्यकालिक जनगणना: पहली तुल्यकालिक जनगणना 17 फरवरी, 1881 को ब्रिटिश शासन के तहत डब्ल्यू.सी. प्लौडेन (भारत के जनगणना आयुक्त) द्वारा करवाई गई।
- तब से हर दस साल में एक बार निर्बाध रूप से जनगणना की जाती रही है।
भारत की प्रमुख जनगणना घटनाएँ और निष्कर्ष
पहली जनगणना (1881)
यह जनगणना ब्रिटिश भारत के महाद्वीप के अधिकांश हिस्से में हुई थी, जिसमें कश्मीर, फ्रेंच और पुर्तगाली उपनिवेशों को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों को शामिल किया गया। इस जनगणना ने जनसंख्या, सामाजिक और आर्थिक विशेषताओं का वर्गीकरण प्रस्तुत किया।
दूसरी जनगणना (1891)
इस जनगणना में 100% कवरेज का प्रयास किया गया और वर्तमान बर्मा, कश्मीर और सिक्किम को भी शामिल किया गया।
तीसरी जनगणना (1901)
यह जनगणना बलूचिस्तान, राजपूताना, अंडमान निकोबार, बर्मा, पंजाब और कश्मीर के सुदूर इलाकों में भी की गई।
पाँचीवी जनगणना (1921)
- 1911-21 का दशक अब तक का एकमात्र ऐसा दशक रहा है, जिसमें जनसंख्या में 0.31% की दशकीय गिरावट देखी गई।
- यह वह दशक था जब वर्ष 1918 में फ्लू महामारी का प्रकोप फैला हुआ था, जिसमें कम-से-कम 12 मिलियन लोगों की जान गई थी।
- भारत की जनसंख्या वर्ष 1921 की जनगणना तक लगातार बढ़ रही थी और वर्ष 1921 की जनगणना के बाद भी यह वृद्धि जारी है।
- इसलिये वर्ष 1921 के जनगणना वर्ष को भारत के जनसांख्यिकीय इतिहास में “द ग्रेट डिवाइड” या महान विभाजक वर्ष कहा जाता है।
ग्यारहवीं जनगणना (1971)
- स्वतंत्रता के बाद यह दूसरी जनगणना थी।
- इसने वर्तमान में विवाहित महिलाओं की प्रजनन क्षमता के बारे में जानकारी के लिये एक प्रश्न
तेरहवीं जनगणना (1991)
- यह स्वतंत्र भारत की पाँचवीं जनगणना थी।
- इस जनगणना में साक्षरता की अवधारणा को बदल दिया गया और 7+ आयु वर्ग के बच्चों को साक्षर माना गया (वर्ष 1981 की तुलना में जब 4+ आयु वर्ग के बच्चों को साक्षर माना जाता था)।
चौदहवीं जनगणना (2001)
- इसमें प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर एक बड़ी छलांग लगाई गई।
- चरणों के शेड्यूल को हाई स्पीड स्कैनर के माध्यम से स्कैन किया गया था और शेड्यूल के हस्तलिखित डेटा को इंटेलिजेंट कैरेक्टर रीडिंग (ICR) के माध्यम से डिजिटल रूप में परिवर्तित किया गया था।
- एक ICR छवि फाइलों से हस्तलेखन को कैप्चर करती है। यह ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकॉग्निशन (OCR) तकनीक का एक उन्नत संस्करण है जिसमें मुद्रित वर्ण कैप्चर किये जाते हैं।
पंद्रहवीं जनगणना (2011)
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- वर्ष 2011 की जनगणना में EAG राज्यों (अधिकार प्राप्त कार्रवाई समूह/Empowered Action Group): उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और ओडिशा) के मामले में पहली बार महत्त्वपूर्ण गिरावट देखी गई थी।
सोलहवीं जनगणना (2021)
- जनगणना 2021 को कोविड-19 महामारी के प्रकोप के कारण स्थगित कर दिया गया था।
- हालाँकि यह पहली डिजिटल जनगणना होगी, जिसमें स्व-गणना का भी प्रावधान होगा।
- यह पहली बार है कि ऐसे परिवार और परिवारों में रहने वाले सदस्यों की जानकारी एकत्र की जाएगी, जिसका मुखिया कोई ट्रांसजेंडर हो।
- पहले केवल पुरुष और महिला के लिये एक कॉलम था।
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC)
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) वर्ष 1931 के बाद पहली बार 2011 में आयोजित की गई थी। इसका उद्देश्य ग्रामीण और शहरी भारत के प्रत्येक परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और जाति से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी इकट्ठा करना था। इसके तहत निम्नलिखित जानकारी एकत्रित की जाती है:
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आर्थिक स्थिति: SECC के आँकड़े केंद्र और राज्य सरकारों को गरीबों, वंचित वर्गों या पिछड़े व्यक्तियों की पहचान करने में सहायता करते हैं। इसके आधार पर, विभिन्न संकेतकों का विकास किया जाता है, जिससे सरकार को विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों में मार्गदर्शन मिलता है।
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जाति आधारित जानकारी: SECC में प्रत्येक परिवार से संबंधित जाति की जानकारी भी प्राप्त की जाती है। यह सरकार को विभिन्न जाति समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का पुनर्मूल्यांकन करने में मदद करती है, ताकि यह पहचाना जा सके कि कौन से जाति समूह आर्थिक रूप से बदतर स्थिति में हैं और कौन से समूह आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में हैं।
जनगणना और SECC के बीच अंतर:
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कवरेज का क्षेत्र:
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जनगणना: भारतीय जनसंख्या का एक संपूर्ण आँकड़ा प्रस्तुत करती है, जिसमें सभी नागरिकों की संख्या, आयु, लिंग, धर्म, आदि शामिल होते हैं।
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SECC: यह राज्य द्वारा दी जाने वाली सहायता के लाभार्थियों की पहचान करने के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करता है। इसका उद्देश्य केवल विशेष वर्गों की जानकारी इकट्ठा करना है, जिनके लिए कल्याणकारी योजनाओं की आवश्यकता हो सकती है।
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डेटा की गोपनीयता:
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जनगणना के आँकड़े: गोपनीय माने जाते हैं, और इनका इस्तेमाल केवल सांख्यिकीय विश्लेषण के लिए किया जाता है।
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SECC के आँकड़े: यह सरकारी विभागों द्वारा विशिष्ट योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान करने के लिए उपयोग किए जाते हैं। इन आँकड़ों का उद्देश्य किसी को अनुचित लाभ प्राप्त करने से रोकना है।
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SECC का महत्त्व:
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असमानताओं का बेहतर मानचित्रण:
SECC को असमानताओं के मानचित्रण में बहुत अधिक क्षमता प्रदान की जाती है। यह जाति आधारित सकारात्मक कार्रवाई, जैसे आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं के लिए सांख्यिकीय आधार प्रस्तुत करने में मददगार साबित होती है। -
कानूनी रूप से अनिवार्य:
SECC के आँकड़े कानूनी रूप से अनिवार्य होते हैं क्योंकि अदालतों को जातिगत आरक्षण के समर्थन के लिए ‘मात्रात्मक डेटा’ की आवश्यकता होती है। -
संवैधानिक जनादेश:
भारत का संविधान भी जाति जनगणना कराने का पक्षधर है। अनुच्छेद 340 के तहत, सरकार को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की जांच करने और उन वर्गों के कल्याण के लिए कदम उठाने के लिए एक आयोग की नियुक्ति करनी होती है।
SECC से संबद्ध चिंताएँ:
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जाति आधारित जनगणना के नतीजे:
जाति का सामाजिक और राजनीतिक महत्व है, और इसके परिणामस्वरूप जाति आधारित जनगणना को लेकर कई चिंताएँ उत्पन्न होती हैं। इन चिंताओं में जाति आधारित पहचान को मजबूत करने की संभावना और इससे उत्पन्न होने वाली सामाजिक-राजनीतिक समस्याएँ शामिल हैं। -
अप्रकाशित डेटा:
SECC के आंकड़े, जाति आधारित जनगणना के लगभग एक दशक बाद भी, कई हिस्सों में अप्रकाशित हैं या केवल सीमित रूप से सार्वजनिक किए गए हैं। यह पारदर्शिता की कमी और जातिगत पहचान के संवेदनशील होने के कारण है। -
जाति विशिष्ट संदर्भ:
भारत में जाति कभी भी वर्ग या वंचना का एक निर्धारित संकेतक नहीं रही है, बल्कि यह एक विशिष्ट प्रकार के भेदभाव का रूप है जो वर्ग से परे भी कार्य करता है।
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